धर्म
और संस्कारों के हरकारे आज भी हैं
त्याग आदर्शों के प्रखर नारे आज भी हैं
ढूंढते हैं दर -बदर एक जिंदगी का आसरा
हमवतन हैं मुफ़लिसी के मारे
आज भी हैं -
***
गुम
है
तूती की आवाज नक्कारखानों में
फासले रखने वाली
दीवारें आज भी हैं
पैगाम देना था इंसानियत हकपरस्ती का
इंसान को बांटने वाली मीनारें आज भी हैं -
****
किसी
ने
पूछा नहीं तारुफ़ इंसानियत
का
दरख्त
दरिया समंदर सारे आज भी हैं
इंसान से इंसान कितना अजनवी हो चला
धरती आसमान और तारे आज भी हैं -
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें