रविवार, 31 मार्च 2013

लेना - देना क्या -




इर्ष्या कहती   अपमान  सुनो
सम्मान  से लेना - देना  क्या-
मद   कहता  व्यभिचार  सुनो 
आचार   से   देना -  देना क्या-
खल     कहता    विद्वेष   सुनो 
विद्वान  से   लेना - देना   क्या-
छल-प्रपंच  असत्य से  कहते
सद्ज्ञान  से  लेना - देना क्या-
जिस  डाल पर बैठा  काट रहा-
अंजाम  से  लेना -  देना  क्या-
मूर्ख    कहे    मैं   ही  परमेश्वर
भगवान  से   लेना -देना क्या-
जंग   विजेता   से   कहती   है
इन्सान  से  लेना - देना  क्या- 
कपटी ,    धूर्त  ,  गद्दार    कहे 
हिंदुस्तान  से  लेना देना  क्या-  
कहते  नैन  सदा  हिय बसना   
सपनों से  लेना -  देना    क्या -

                     -  उदय वीर सिंह

 

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

नव- वंद




उठता है ज्वाल जलधि में भी  जब
संयम   की   कोख   जल  जाती  है  -
हृदय    गरल    भी    पी   लेता   है     
जब    पीर     सही    न   जाती   है  -

कांच     खनकता ,   हृदय     नहीं  
जब   ठेस   कभी   लग   जाती  है  -
मंगल    मन   का   क्षितिज   जले  
वह   बात    नहीं    की    जाती  है  -

नयन     की   सरिता   बंध    नहीं  
अबिरल       धार    बह   जाती  है  - 
मौन       हृदय       का     आवेदन  
वाचाल    पलक     कह   जाती  है  -

रो    उठता     हिय    अंक    बावरे 
अग्नि     तुषार    बन    जाती   है-

                                -उदय वीर सिंह  

मंगलवार, 26 मार्च 2013

गोरी मलंग हो गयी-


फाग आया की  कुड़ते  में फूल आ गए ,
धानी कुडती  भी फूलों का घर हो गयी -

पोरी गन्ने  सी  रस  में लचक  माधुरी 
देह    मतवारी   डारी   सुघर  हो  गयी- 

रस - मदन  वस  गया  अंग प्रत्यंग में,
प्रीत  फूलों  की   डोरी  पतंग  हो   गयी -


मैल  धुल जाये दिल  की  रंग  बर्साईये   
रात  काली  गयी , अब सहर  हो  गयी-  


अब   तो   रंगों   के   हम ,रंग  मेरे  हुए
उदय    होरी -  गोरी    मलंग   हो  गयी-
                         
                                 - उदय वीर सिंह    


शुक्रवार, 22 मार्च 2013

शहीदे आजम


शहीदे आजम सरदार भगत सिंह की कुर्बानी की पूर्व संध्या पर मेरे अहसानमंद दिल की विनम्र श्रद्धांजलि 
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गम   नहीं कि मेरी  आवाज  गूंजती   नहीं
तेरी  आवाज ही काफी है सरफरोशी के लिए- 

फख्र   है  ,तेरी  मज़ार आग  का दरिया  है 
नहाते   हैं   वतनपरस्त , गद्दार  डूबते   हैं    -

एक तेरी फितरत थी वतन को मां कहने की
एक वो थे, जिन्हें  माँ  कहना  नहीं आया  -

तेरी  कुर्बानी  के कर्जदार हैं शहीदे- आजम 
तेरा  मुकाम  ऊँचा  है तेरे शाये  में जीते  हैं  -

तेरी  रुखसती  में  फ़क़ीर ! माँ  नहीं रोई थी  
आज रोती  है ,आँखों  में तेरा अक्स  नहीं  दिखता  - 

तेरे पावों के निचे खड़े पियादों की बिसात क्या  
तूं  ऊँचा  तेरा  मुकाम  ऊँचा  है  -

                             उदय वीर सिंह 



  







  

गुरुवार, 21 मार्च 2013

जां -निसार


ज़माने को एतबार था तुम्हारी नुरे-नज्म  पर
आज  नज्म  और ज़माने  में  फासला क्यूँ  है  -

इन्तखाब करती थी ज़माने को अपनी सी लगी
दर्द  को  दर्द  लिखता  था अब मुकरता क्यों  है -

तंग   राहों   के,  रंज  लिखता  था  बेख़ौफ़  यारा
मंजर वही हालात बदतर मुक़द्दस कहता क्यूँ  है  -

माना की तेरा आना-जाना बेटोक है राजमहलों में
तूं   दफ़न   कहाँ    होगा  आखिर  भूलता  क्यूँ  है  -

तेरी  नज्म  की  जादूगरी  होठों  पर लहराती रही
अब  क्या   है   तेरी   बेबसी बता, छुपाता क्यों  है  -

कितने जख्म गहरे, ज़माने  के सीने में छिपे हुए
अपने    मामूली    से    जख्म    दिखाता   क्यूँ  है  -

                                                   -   उदय वीर सिंह



मंगलवार, 19 मार्च 2013

श्रद्धेया-


श्रद्धेया-
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कभी  कुंआरी  थी अब  पेट से  है  कलम  
ठहराव  आ  गया  है  ,रफ़्तार  कम  है  -

प्रवाह  था  रोशनाई  में  अब  जम  गयी  है  
चलती है नफा -नुकसान का मायना लेकर  -

रहता आईना साथ था अब हिजाब रहता है  
देखती  कुछ  और  लिखती  कुछ  और  है  -

खौफ  था ईमान  का,अब ईमान खौफ में है  
जारी  हो  जाते  हैं बयान जो  दिए नहीं गए  -

दहशतजदा हो जाएगी इतनी सोचा नहीं कभी  
छिपने  लगी  है जेब  में  शमशीरे आवाम थी  -

                                   ----   उदय वीर सिंह 

  


शुक्रवार, 15 मार्च 2013

संवेदना की शाख पर उल्लू बैठे हैं ,






संवेदना    की   शाख    पर  उल्लू  बैठे हैं ,

पूछते  हैं ,आप  कैसे  हैं ?

आप   ने    पढ़ा   था   न,  कल   का   अखबार 

दामिनी   के    हत्यारों   से  हमदर्दी व  प्यार, 
रोज   एक   नयी  दामिनी  आज भी मरती है
यह   एक   आम  घटना  है  संवेदना कहती है - 

घडियाली  आँखों  से  कुछ बूंद टपकते हैं - 

पूछते हैं आप कैसे हैं ......

बंधक  है  लाश  अस्पतालों में, दवा  के दाम में 

प्रसूता  शिशु   को  जन्म  देती है बाहर लान में
देखा  एक  नजर सड़क पर मुंह  फेर चल दिया
देह तड़फती  पड़ी है, अनजान  सी  सुनसान में -

न किसी हमदर्द के पांव रुकते हैं ......


बस्तियां  बनाकर उजाड़ लेने  का दर्द  उनसे पूछो 
रोज कुआ खोद प्यास बुझाने का   दंश उनसे पूछो
अभिशप्त  पूछते   हैं  अपना  वजूद  ढूंढ़ते  हैं वतन
बंजारों और इन्सान में कितना है फर्क उनसे पूछो -
  
क्या कभी वो भी रोते हैं हंसते हैं .....

चुकाने को कर्ज, पेट की आग ढकने को नंगा  तन
विवस बेचने को नवजात एक माँ के हालात देखो -
सूखे स्तन से दूध नहीं खून रिसता है शिशु रोता है,
चाहा बेचना रुग्ण शरीर  न मिले  खरीददार देखो-

इंसानों के नहीं सूखे पत्तों के मोल मिलते हैं -  



होने  थे  हाथों में, कलम कागज शिक्षक का प्यार 
आये   हाथों   में  जूठे  बर्तन ,हलवाई  की फटकार 
तस्वीर  बननी   थी , जिन उँगलियों से, गल गयीं  
खिलना  था  बचपन , मुरझाया   जवानी   के  द्वार-

आँखों के ख्वाब आँखों में रहते हैं -  


                                                     -उदय वीर सिंह 








बुधवार, 13 मार्च 2013

इक्कीसवीं सदी के हमसफ़र .....




साये हैं हमसफ़र इनके,
रहबर हो लेते हैं
दो पल के भीड़ वो तमाशाई
रोज बसती हैं उजडती हैं 
इनकी बस्तियां 
रोज खोदते हैं कुंवे 
बुझाते हैं प्यास ...
काश ! संसद में इनका बल होता
कह पाते  कि 
हम बेघर बंजारे नहीं 
इनसान हैं ,
हमवतन हैं  हमसफ़र हैं 
इक्कीसवीं सदी के ....
हमें भी, रोटी कपड़ा मकान  की 
जरुरत है ...
क्यों चला जाता है 
तेरे विकास का काफिला दूर से 
हमें देख कर..... 

                        - उदय वीर सिंह   

रविवार, 10 मार्च 2013

दीपिका


जल लाल अंगारे कारे होए 
री ! तूं  गोरी  की  गोरी- 

कितनी   शाम , सुबह  आई 
काली  घटा   चपला  कर्कस
संचित   राशि  पयोधि  सम
हिय आतुर स्नेह टुटा बर्बस -

वय छोड़ गयी कितने सावन 

री ! तूं   छोरी  की  छोरी -


लगे   दाग    न     रुक   पाए 
बूंद   कमल   की  पात  सम
खिला कमल कीचड़ में कहीं  
छोड़ गया  वह वन - उपवन-

जल    परवाने    खाक   हुए   

री !   तूं    कोरी   की    कोरी- 


बीती    सदियाँ    युग   बीते 
कहता  है परिवर्तन युग का 
शब्द  बदल, कुछ अर्थ बदल 
कुछ दिशा  बदल  कदमों का -

हर  रात बदलता चन्द्र  रूप 

री !  तूं    भोरी   की  भोरी- 
  
विरह  कहे  तो मौन कहेगा 
अंतर्मन    की    पीड़ा    भी ,
भाव -अभाव संवेदित मानस 
प्रकृति -पुरुष की क्रीडा भी -

मुक्त हुआ आराध्य- आराधन 

री !  तूं  बंधे  कित  डोरी - 

                         -  उदय वीर सिंह 





   



      

    

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

आधारशिला



                       [महिला दिवस ]
तू ,
गीत ,संगीत 
सृजन की मीत,
रचना की भीत ,प्रीत की रीत 
संसकारों की शाला,प्रेरणास्रोत 
दया की प्रतिमूर्ति, ममता  की 
पाठशाला ....
साहस की समन्वायिका 
तेरे आँचल में  डोडी ,नन्हीं उंगलियाँ 
पुष्पित ,पल्लवित आकार लेते हैं 
महकते हैं संवेदनाओं के द्वार 
खोलने को एक नया
संसार...सृजने !  
तू आधारशिला है
निर्माण की .....|

                 - उदय वीर सिंह .
    

मंगलवार, 5 मार्च 2013

माँ तो गंगा है ...


     माँ  तो  गंगा  है ...

हिस्से    में     मेरे     माँ   आई 

   कह  माँ   को शर्मिंदा   न  करो-
     माँ    बंटवारे    की  वस्तु  नहीं    
       माँ  तो   गंगा  है  गन्दा न  करो-
**
   तेरे   रोने   से  वो  रोई   है  
     हंसी   ही  उसकी खुशियाँ  हैं 
      खौफ खुदाई  एक  तरफ, तेरी  
        दुनियां   ही  उसकी  दुनियां  है - 
जन्नत  है उसके  पांवों  में  नंगा  न  करो-
** 
     ईश्वर   भी  उसकी  रस्सी  से   
       ओखल   में    बांधे    जाते  हैं  
        देव - दैत्य  सब  एक सामान  
         माँ     से      दुलारे    जाते    हैं  -
आँचल में भरा अमृत सागर विष- रस की वर्षा न करो -
**  
      ब्रत  रखती  तू  रहे  सलामत  
        हर  देवालय  में मत्था टेका है  
        क्या    माँ   के   खातिर   कभी   
         किसी  ने ,  कोई  ब्रत  रक्खा  है  ? -
करती  है  चिंता  तेरी , तूं  चाहे  चिंता  न  करो -
**  
      हर  दर्द  बला  से  तू  दूर  रहे  
        ताबीज    बनाया   करती   है,   
         भूखे   पेट   स्वयं    सो    लेती      
          तुमको   वो   खिलाया  करती है-   
तोड़ा पत्थर मिले निवाला ममता की निंदा न करो- 
**
                                           -उदय वीर सिंह 


     
     
     

    

      





रविवार, 3 मार्च 2013

बनाता ही क्यूँ है .


















बनाता ही क्यूँ है .
***
वो  अंधेरों  के  चिराग बुझाता  ही क्यों है
ख़ुदा , खुद   किस्मत   बनता  ही क्यों है -.


करते  हैं  पाबोसी ,सिजदा  तेरे  दर  का
मुहताज किसी और का बनाता ही क्यूँ है  


माना किसी सल्तनत के वारिस हम नहीं   
मुफलिसी   का  रास्ता  बनाता  ही क्यूँ है - 

क्यों   अंधेरगर्दी  है  तेरी रियासत  में रब
किसी  मासूम  को यतीम  बनाता क्यूँ  है -

जो नींद के लिए काफी है संगदिल सीढियाँ
तो  मखमली  सेज  को सजाता  ही क्यूँ है-

                                        -   उदय वीर सिंह     



      






शनिवार, 2 मार्च 2013

तू किसका है -







तू किसका है -
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कल   का   आंसूं ,  आज   का   तेरा  पड़ाव है
कल     के    स्वांग    की   आगे   बात     कर-

कुछ  मिश्री   सी  घोल   की   बात  बन  जाये
तेरा  फ़न   मालूम  है ,मतलब  की  बात  कर-

कुत्ता भी हैरान  कल  रेशम, आज  तन खादी
भौंके है तुझे देख अपनी पहचान की बात कर-

तेरी जाति,तेरा धर्म तेरा ईमान नहीं  मालूम
हैवानियत की छोड़  इंसानियत की बात कर-

न काशी है, न  तेरा  काबा है,  मतलबपरस्त
तू  किसका है सौदाई सिर्फ  उसकी बात  कर-

                                                   - उदय वीर सिंह