मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

क्या जमाना दे रहा है -



चाहता है  आदमी  क्या  जमाना दे रहा है -
इंसान   को  दगा  तो , इंसान  दे  रहा   है -

कोशिश तमाम  उम्र  की  परवान  न  हुई  
इंसानियत के सेज पर शैतान  सो  रहा है -

महफिलें  दर  महफिलें  रौनक  तमाम है 
बेईमान  हंस   रहा  है , ईमान  रो   रहा है -

हर शख्श परेशां है यक़ीनन  फूल के लिए 
शिद्दत से  अपने  बाग़  में  बबूल बो रहा है-

बुजदिली  की  आग  कुछ  तेज  हो  गयी है 
जलाकर अपना घर कितना खुश हो रहा है 

                                      -  उदय वीर सिंह 




4 टिप्‍पणियां:

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुंदर !

वाणी गीत ने कहा…

इस समय की है कविता /ग़ज़ल जो वर्षों से सामायिक ही लगती रही है !
सोचने को मजबूर करती रचना !

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

सच है, समाज की यही स्थिति हो गयी है।

चन्द्र भूषण मिश्र ‘ग़ाफ़िल’ ने कहा…

क्या बात वाह! बहुत ख़ूब!

अरे! मैं कैसे नहीं हूँ ख़ास?