रविवार, 7 अप्रैल 2013

उन्हें उल्फत नहीं आती -


मुझे   मालूम   है   उनकी   फितरत
वफ़ादारी     की     हलफ    लेते    हैं
वतनपरस्त   हैं  इतने   कि  अक्सर
गद्दारी    का      इल्जाम    आता  है -

उनकी दोस्ती का अंजाम मुझे मालूम
आता  नहीं  काँटों  से निभाना हमको ,
वो  जख्मों  का  शहर  लिए  फिरते हैं
प्यार में  भी, खून  का  इनाम आता है  

मुक़द्दस   सोच    पर   ताले   काबिज
विचारों   पर   बेसुमार   पहरे  कायम
फितरते-  नफ़रत  तस्लीम करती है
रस्क  है  उल्फत  से,  याराना   कैसा -

पेश  की  चादर- ए-गुल , खिदमत में
पैगामे-ए-मोहब्बत  की हसरत लिए-
हम  भी   नादान  थे  कितने  दौर  के
हमें नफरत , उन्हें उल्फत नहीं आती-

वरक    से    अल्फाज    मिट    जाते 
जब   भी   लिखा  प्यार  के अफसाने
कही  दूर  से आवाज  दस्तक  देती है 
गुमशुदा   को   आवाज   क्यों  देते हो -

                                    उदय वीर सिंह 



                         





4 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत बढ़िया!
मगर रचना में तुक की मर्यादा को भंग भी किया गया है! शायद कोई नई विधा होगी ये भी!

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बहुत बेहतरीन प्रस्तुति !!! वाह वाह ,,,

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रचना दीक्षित ने कहा…

हम भी नादान थे कितने दौर के
हमें नफरत,उन्हें उल्फत नहीं आती.

सुंदर गीत. शुभकामनाएँ.

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

बेहतरीन अभिव्यक्ति