मुझे मालूम है उनकी फितरत
वफ़ादारी की हलफ लेते हैं
वतनपरस्त हैं इतने कि अक्सर
गद्दारी का इल्जाम आता है -
उनकी दोस्ती का अंजाम मुझे मालूम
आता नहीं काँटों से निभाना हमको ,
वो जख्मों का शहर लिए फिरते हैं
प्यार में भी, खून का इनाम आता है
मुक़द्दस सोच पर ताले काबिज
विचारों पर बेसुमार पहरे कायम
फितरते- नफ़रत तस्लीम करती है
रस्क है उल्फत से, याराना कैसा -
पेश की चादर- ए-गुल , खिदमत में
पैगामे-ए-मोहब्बत की हसरत लिए-
हम भी नादान थे कितने दौर के
हमें नफरत , उन्हें उल्फत नहीं आती-
वरक से अल्फाज मिट जाते
जब भी लिखा प्यार के अफसाने
कही दूर से आवाज दस्तक देती है
गुमशुदा को आवाज क्यों देते हो -
उदय वीर सिंह
4 टिप्पणियां:
बहुत बढ़िया!
मगर रचना में तुक की मर्यादा को भंग भी किया गया है! शायद कोई नई विधा होगी ये भी!
बहुत बेहतरीन प्रस्तुति !!! वाह वाह ,,,
RECENT POST: जुल्म
हम भी नादान थे कितने दौर के
हमें नफरत,उन्हें उल्फत नहीं आती.
सुंदर गीत. शुभकामनाएँ.
बेहतरीन अभिव्यक्ति
एक टिप्पणी भेजें