शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

**एटम-बम **

[प्रकृति    के    रहस्यों   से   अंजान कुछ  ज्ञांत  हुआ  तो  इश्वर  बनने  का  दर्प  आज  मौत  के  मुहाने  पर  ले   आया  है  / हम  सोच  बैठे  की  परमाणु-शक्ति   से  शत्रु  का  संघार करेंगे  ,जबकि   विकिरण  की  अदृश्य  आग  .जो  सरहद -बिहीन   है   फैलेगी   ,तो  जलाने वाले  व  जलने वाले   दोनों  ही  खाक  हो  जांएगे  . आओ  सोचें  क्यों  तुले  हैं  अनमोल  कृति    के  विनाश  पर ..... . ]
***           ***
मुक्त   नहीं   हो  खुदा नहीं हो ,
   ज्वालामुखी    उगाते      क्यों  ?
     सृष्टि    अनमोल   मिटाने   को ,
        एटम -   बम     बनाते    क्यों   ?

नादान  अभिमान  में क्यों भूला,
    परमाणु  -  अग्नि    ना   चेरी   है ,
       दबे    पांव ,    अदृश्य      मौत ,
          देने     से     पहले       तेरी     है   /

परी सी धरती , क्षितिज रुपहला ,
    खाक  में   इसे   मिलाते   क्यों  ?

फुक्कुसिमा      चेर्नोबायिल,
   सीने    के    जख्म   नमूना हैं
     हर महाद्वीप  में  धधक  रही लौ ,
       हर-   पल   सदमें   में  सफीना है  /

वर्चश्व  धर्म का ,मद का ,निज का ,
    जीवन   को   झुठलाते    क्यों   ?

कुंद   चेतना  जडवत होती ,
   मरुधर  बन गया विचार सृजन ,
      क्या  द्रवित  हुआ न  देख हृदय ,
       नागासाकी , हिरोशिमा  का  मंचन  ?,

हे सृष्टि के अनमोल देव !
    शोणित से प्यास बुझाते क्यों  ?

पुस्तें      उबर      नहीं      पाई ,
  प्रारब्ध ,वैधव्य , विकलांग  मिला ,
    नदियाँ क्या ,पयोधि भी निष्फल है,
      समन-हीन विकिरण का अभिशाप मिला   /

न पहचान  पराये अपने  की,
       उस    पनाह    में   जाते   क्यों  ?

संधि    न       कोई    रोक   सके ,
    न    रोक    सके    सरहद    कोई ,
     वाशिंगटन ,दिल्ली ,बीजिंग, माश्को
        मिट       जायेंगे        हर        कोई  /

मसले     तो     तेरे  -  मेरे   हैं
    सृष्टि    को   बाँझ    बनाते  क्यों  ?

न   मरा " मैं "  व   दर्प   अगर
    मर    जायेगा    इन्सान    यंहां  ,
     जिस वैभव  ,सामर्थ्य  पर   इतराते ,
        बन    जायेगा     शमशान       यहाँ   /

बसुधा  का  आँगन  सबका   है ,
     विष - बेल   उदय    लगाते  क्यों  ?


                                         उदय वीर सिंह .

                                        

  


                      







मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

** मांगो न पीर **

 [निरंतर   सुख   ,सौन्दर्य ,सम्बन्ध   कर्तव्य  ,  संजोने  की  प्रत्यासा  में  जीवन  गतिमान रहता है ,फिर भी थोड़ी सी ठेस लगने पर विकल हो जाता है ,क्योकि उपर्युक्त धातुये , निरंतर स्थान बदलने वाली हैं / कोई सरल ,सौम्य ,सगा सा लगता है तो वह पीर है ,जो बिन मनुहार साथ रहती है ,सयाने कहते हैं --छोड़ इसे !    पर मैं  इसे कैसे -------- ]

मांगो  न  कोई पीर  मेरी ,
    ये  साथ  निभाने  वाली  है ,
      कुछ नियति प्रणव की ऐसी है ,
         जो हर-पल  मिलने वाली  है -----

तुम छोड़ चली क्यों री पगली ,
    देने  को  चैन,  बैराग्य    लिया ,
     अविरल   नैन   कहाँ  रुकते  हैं ,
         तेरे      उर ,    विश्राम     लिया ----

पूंजी भी मेरी श्नेह-लता ,
         अतिरंजित होने वाली है  ----

बरसे  थे  सावन  झूठा  था ,
     मद - बसंत  से  क्या   लेना  ,
       दो झरनों की  आहत बूंदों से ,
          जीवन -  पथ  का   तर   होना  --

तज अवलंब ,राहें  मेरी  क्या ,
     उज्जवल   होने   वाली     है ?--

सुख , संयोग , दुर्योग    बना ,
    अपनों   में  पराया  लगता  हूँ  ,
       होठों  पर  हंसी    बिखरती   है ,
        अंतर ,  अनल   में     जलता   हूँ --

न  छोड़   मुझे   आबद्ध   करो ,
     आस     बिखरने      वाली    है --

वैभव - सानिध्य  सपोला   है   ,
    स्वयं   से   दूर   हुआ   जाता --
      न   शाम   मेरी , ना  प्रात   मेरा ,
         सूर्य      दोपहरी    छुप      जाता ---

यौवन की दे ना प्यास मुझे ,
    जो  हाला   में   ढलने   वाली  है ---

सूखी  सरिता ,  मरुधर    जैसी ,
   भग्नावशेष   धूसरित  दीखते  हैं ,
    अस्तित्वहीन    शाहिल , कश्ती  ,
       इतिहास     पुरातन    लिखते    हैं ---

जीव   तजे , मौजें   रुखसत ,
      उदय  पीर ना   जाने  वाली   है ---

                                 उदय वीर सिंह
                                   २६/०४/२०११

  

रविवार, 24 अप्रैल 2011

ख्वाब अच्छा है

[आशा की संभावना क्षीण  नहीं हुयी , कल्पनाओं में जो अक्स आते हैं ,आवश्यक नहीं साकार  रूप लें, विचार बन गतिमान हो उठते हैं ,आत्माभिव्यक्ति ,सर्व-जनाभिव्यक्ति का का स्वरुप पाए , यही तो कामना होती है एक साधक की ,प्रयास करता है --विचार  अच्छा है  ] 

  विकास का  दौर , महंगाई हिमालय लांघती ,
  रामराज   आ  रहा   है ---प्रचार   अच्छा   है -

शबनम , को  शोलों  से   मुहब्बत   हो   गयी ,
जलने  से   बचाने   का,   प्रयास   अच्छा    है -

"हम  होंगे   कामयाब  एक  दिन"  का  हलफ,
मन    बहलाने     का    आधार     अच्छा    है -

अच्छा  है  कि, सुनामी  कभी आ  ही जाती  है ,
वरना, बे-सबब , चेहरों  पर  नकाब अच्छा  है -

उठा   चौक   में    शोर ,  नेता   पकड़ा    गया ,
अपराधी भी पकड़े जाने लगे समाचारअच्छा है -

बाडी  - बिल्डर हँसते  रहे ,आबरू लूटी  गयी ,
दम  तोड़  दिया  देख , वो  बीमार  अच्छा  है -

सन्यासी ले माया काँख में ,भ्रस्टाचार उन्मूलन कर रहा 
धर्म - विक्रेता  से  कहीं , मक्कार अच्छा है -

खामोश रहती परछाई ,अच्छा नहीं है बोलती ,
अक्स , रहबर  बन  चले तो ,ख्वाब  अच्छा है -
  
                                            उदय वीर सिंह
                                              २४/०४/२०११ 


शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

**एक प्रवर्तक का जाना **

[जितना रहस्यमयी ,अनजाना आगमन  एक महापुरुष  का इस धरा  पर होता है ,उतना ही कष्टमय उसका जाना  भी होता है ,बस फर्क  यही होता है ,पहले पहचानते नहीं ,और जब तक  पहचानते  वो रुखसत  हो चूका  होता है  / कमों- वेस हर धर्म में यही हुआ है / महान आत्माओं के साथ यह नया नहीं है ,खुद को  मिटाकर सृष्टि   को सम्मानित किया है   /  देव दूत -ईशा मशीह  के प्रयाण- दिवस पर   मेरा नमन .श्रधांजली अर्पित है------] 


प्रयाण-
मानवता की राह
समर्पण-
सेवा के प्रति ,वेदना से मुक्ति की चाह ,
निष्ठा -
मनुष्यता के प्रति माधुर्य ,
रचना -
विकास ,सृजन के आयाम ,
भाषा -
प्रेम की
निजता -
दुखियों  से ,
वैर -
द्वेष से ,घृणा से ,प्रलम्भन,हठ से
दृष्टि -
एक ,निश्छल ,निष्पक्ष  ,
दर्शन --
परमात्मा का अस्तित्व  /
लेकर आये  पैगाम --
** न देख सका ,न सुन सका , न कह सका ,
      जमाना  !
      मद में था ,अज्ञानता के  /
      सीमित सोच ,
      असीमित बनाती है ,दुःख को ,असमानता को ,असफलता को ,
      जन्म देती है --
      विध्वंश को ,विकृति को /
यही तो कहा था ,उस महान देव-दूत ने ,
रास नहीं आई चेतना ,दिशा ,प्रेम , सेवा ,
        चढ़ा दिया ,व्यक्ति को नहीं ,
        विचार को ,
        शूली पर  /
जो बिखर तो गया ,
 पर दिलों में    /
 अमर हो गया ,----
स्वीकृति देनी होगी ,
हमको आपको ,सबको ,
संकीर्णता से
ऊपर उठ
कर सुविचारों   को ----

                         उदय वीर सिंह 
                          २२/०४/२०११   

  
    
    





बुधवार, 20 अप्रैल 2011

**सक्रमण में देश **

** दुःख होता है जब हम ,अपना आत्म- निरीक्षण नहीं करते  /आज हम कहाँ हैं ? क्यों हैं ? प्रश्न करते हैं तो क्या पाते है ? वेदना ,निर्भरता ,असहायता ,कितना सक्षम हो पाए हैं हम किसी भी क्षेत्र में , विश्व पटल  पर, विश्व गुरु बनना है तो ,अमर भारत के ,निर्विवाद सपूतों 
भारत को  स्वस्थ बनना होगा ,करना होगा त्याग ,  संकीर्णता का ,मोह का ,स्वार्थ  का पक्षपात का अवगुणों का ---]

शरीर  में सूजन इतनी ,
मुश्किल से मिली नाड़ी 
परीक्षण करते बैद्द्य  जी ने कहा --
हालत बेकाबू हैं /
गहन परीक्षण ,चिकित्सा की आवश्यकता है ,
अंग , अवयव , निष्क्रिय हो रहे हैं .....
परीक्षण - परिणाम देख ,चिकित्सक ,अभिभावक मंडल ,
हैरान ! विवरण कुछ इस तरह ----
      कृषि -क्षेत्र ,लकवा ग्रस्त हो गया है  /
      परजीवियों का निवास-स्थल ,
     कीट,  पतंगों का चारागाह,
      डंकल का प्रभाव स्थायी हो गया है /
      खेत फसल खाने लगे हैं 
      किसान आत्महत्या को विकल्प बनाने लगे हैं ,
आर्थिक क्षेत्र --कैंसर के प्रभाव में है --
       मांग- आपूर्ति में महान अंतर है ,
       आयात - निर्यात में सामंजस्य नहीं ,
       विदेशी दबाव निरंतर  है ,
       हाथ  है काम   नहीं ,
       श्रम का दाम नहीं ,सम्मान नहीं ,
       विकास दौर में ,उत्पादक के बजाय,उपभोक्ता हैं ,
       अविष्कार ,खोजों से बैर है ,
        निर्यात  कर रहे हैं अपनी मेधा ,
       यहाँ  अपना गेहूं ,अपना धान  नहीं  / 
सामाजिक -क्षेत्र  एड्स  से पीड़ित है -----
        अपनी  जाति ,धर्म ,संप्रदाय  ,भाषा  क्षेत्रवाद  
        का  विकास  तीब्र  से  तिब्रतम  है  ,
        छद्म - आत्मीयता  ,द्वेष  पाखंड  ,
        रग  -रग  में  समाहीत  ,
        सींच   रहे  हैं  -
        बट -बृक्ष , आस्था का ,रुढियों  का , परंपरा  का ,
         सिमटती   छाँव  ,
         संवेदना   ,मृतप्राय ,  
         चेतना   कोमा  में   /
         सर्व  -श्रेष्ठता  की  सुखानुभूति  में
         बन  गए , दिवा-स्वप्न  के  साजन    ,
         बिखर  गयी  ,सहृदयता ,सौहार्द  ,निष्ठा  /
शिक्षा  का  क्षेत्र  - विकलांगता  में  है ----
       * अभिनेता, आदर्श ,चल-चित्र ,शिक्षक की भूमिका में ,
          शिक्षक मूक ,मजबूर ,
          व्यवसाय बन गयी शिक्षा ,
          शिक्षालय, शमशान ,
          पुस्तकों के वाचक ,नहीं  मिलते ,
          रचनाओं के प्रकाशक नहीं मिलते ,
          बढ़ रही  दूरी , अनिच्छा ,अन्व्वेषण से नवीनता से ,
          खोजते हैं ---
          कालिदास ,कबीर ,टैगोर ,पेमचंद, जयशंकर
          ग़ालिब, मीर ,
          नहीं मिलते  /
रक्त संक्रमित हो गया है  - भ्रस्टाचार  से ,
मांसपेशियां -सियासत  के  वायरस   से,
        निदान  वांछित है ,अस्तित्व  लिए  ,
        संजीवनी चाहिए !
        धन्वन्तरी   की     प्रतीक्षा   है ,
        स्वस्थ भारत देखने की  इच्छा  है  ,
        हम   छोड़    नहीं   सकते ,
        बीमार  अपने  देश  को ,
        आओ   करें  प्रयास .
,       निश्छल, निर्मल,
        मन  के
        साथ  .......

                                               उदय  वीर  सिंह
                                                २०/०४/२०११


        
        
        

      

रविवार, 17 अप्रैल 2011

**नयनीर**

      
कभी  सगा  अपना  कहने  को  ह्रदय   विकल  होता  है   तो  ,चेतना   में  नय्नीर [आंसू ] के  सिवा   शायद  कोई  नहीं  मिलता  ,/ वह   आत्मिक , भौतिक ,सम्वेदनाओं  को  अपनी  भाषा  में  परिभाषित  कर  संयमित  करता  है  ,आत्मा  व  शरीर  दोनों  को  / मेरा  प्रयास  उसे  बांचने   में  कितना  सफल   है   ,मुझे  खुद  नहीं  पता  ,शायद  आप  सबको  हो  .......]


लेखनी  नहीं  होते  ,तूलिका   नहीं  होते  ,
    कागज  नहीं  होते  ,कैनवास  नहीं  होते  ...
       सरिता  नहीं  होते   , झरना  नहीं  होते  ,
        श्वाती  की  बूंद , सावन  की  घटा  नहीं  होते  ....

बरस   जाते  हैं  अक्सर  ,बिन  बरसात  के  ,
   ये हमसफ़र होते हैं ,इनके हमसफ़र  नहीं होते  ....
      अधिनायक  नहीं  होते  ,अधिकार  नहीं   होते  ,
        खंडित   होकर  भी  कभी  प्रतिकार  नहीं  करते ....

ब्यवसाय  की  वस्तु   नहीं  , व्यपार   नहीं   होते  ,
   सुख जाते है उन आँखों से,जिनमें प्यार नहीं  होते  ...
      रहते साथ सुख -दुःख में सदा ,गुमराह  नहीं  होते
         निकल  पड़ते  है आँखों से ,जब ऐतबार नहीं  होते  ....

प्रीत   नहीं  होते  ,संगीत   नहीं   होते  ,
    हर  साज  से  निकले वो  गीत  नहीं  होते  .....
      टूटती   साँस  ,बढ़ते    फासले    दिल     के  ,
         दरकते  विश्वास  के ,जिम्मेदार    नहीं     होते  ...

जीत   नहीं   होते   हार  नहीं  होते
    फ़ूल  नहीं   होते ,  खार   नहीं   होते ,...
     स्वागत गीत नहीं ,बन्दनवार नहीं होते ,
      इंतजार करती आँखों के इंतजार नहीं   होते ....

मुन्शफ़ नहीं होते ,कातिल नहीं होते ,
   किसी अदालत के तलबगार नहीं होते ...
     करता रहा गुनाह खंजर,सगल था उसका ,
       ये सींचते रहे गालों को ,गुनाहगार नहीं होते ....

पथ   नहीं होते ,मंजिल  नहीं होते ,
    नाव नहीं होते , पतवार  नहीं   होते ..
      प्रतिबन्ध नहीं होते ,जंजीर   नहीं   होते ,
         मौसम   की   तरह  बेवफा यार  नहीं होते .......
****
आंसू ------

        स्नेह है , वेदना  है ,संवेदना  है ,
        निश्छल  है ,प्रमाण  है,
        हस्ताक्षर है , संवेदन्शीलता, का ,
        उत्तर है ,प्रतिउत्तर है ,
        कुबेर का  खजाना  है ,
        निधि  है  ह्रदय  की ,प्रेम  की ,
        प्रतिनिधि  है , सरलता  की ,जीवन  की ,
        मुक्त है, अंतर  से,
        संस्कार है ,  विचार   है ,,
        मधुर  है, कोमल  है  ,
        अन्तरंग  है ,चेतन  की ,अवचेतन  की ,
         आहट  है,  मुस्कराहट  है ,
         स्वीकार्यता की  /
         प्रकटीकरण है ---
         अवसान की ,अभिदान की ,अपमान  की ,
         प्रस्तुतकर्ता  है ,बोध है ,आत्मचिंतन है ,
         बिंदु  होते है अनमोल  सृष्टी के ,
         बिन बोले कह जाते  हैं सब ,
          जो न कह पाए ,
          जीवन भर ----
          चलते रहे .
          निरंतर ,जीवन पथ पर
         अंतिम
          सफ़र
          तक ------  /

  
                                      उदय वीर सिंह
                                        १६/०४/२०११
      


    


गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

**बैसाखी **

{ * मेरे प्रिय  देशवासियों  बैसाखी   की  हार्दिक  शुभ  -कामनाएं   / यह ख़ुशी   का पर्व , धार्मिक  ही नहींअपितु  इतिहास  का  अमिट  हस्ताक्षर भी  है  / जिसने  प्यारे  वतन   को  उर्जावान रखा है . /  हम उसके  वारिस , बैसाखी   को  तन  -  मन  व  आत्मा  में  समाहित   कर  फुले , नहीं    समाते   हैं / बढ़ते   जाते  हैं  और  एक   कदम   आगे  ----} 

****
पग  सजी  है   रंगीली   ,थिरकते  कदम
आ  मिलो  जैसे  सागर   से  धरा   मिले - --

ऐ  बैसाखी   सलामत   अमर   तू  रहो ,  
गमजदों     को   सहारा तुम्हारा  मिले --

तेरे दामन में कम हों न  खुशियाँ कभी ,
मेरे    दामन     को ,   तेरा सहारा मिले -----

                    खेत  मेरे सजे  आगमन  में तेरे ,
                         हवाओं ने खुशबू नजर कर दिया --
                           बेबे कहती बिठाने को अपनी पलक ,
                              बापू गीतों से गलियों में  रस भर दिया --

सोंड़ी  मुडीयार  आँचल   सजाये     हुए , 
भर के छलके ख़ुशी इतनी ज्यादा मिले ----

                      तेरे    आँचल   में     केवल   सितारे    नहीं  ,
                          इतिहास   -ए- वतन   का  नजारा  भी  है   --
                             खालसा  का  जनम  ,राहे  -कुदरत  मिली   ,
                                  जलियांवाला    ,दा     घल्लुघारा      भी  है  -----

तेरी  चाहत बैसाखी  इस  कदर  दिल   में  है   ,
तेरे  संग   खातिर   जीवन   दुबारा     मिले  ------

                        गीत  है  ,प्रीत  है  ,  मीत    है   हमकदम ,
                             तुमको  चाहा  है  दिल से  हर शख्श -ए-वतन  --
                              त्याग   ,खुशियों    से     तेरी   तो    पहचान  है   ,
                                  शाहे -  किस्मत , मिशाल-ए -तारीख -ए -चमन   -----

मिट   सकें  शान  से  ,देके   खुशहालियां  ,
राहे-   रहबर   ,गुरु ,  पंज-प्यारा    मिले  -------


                                                                 उदय   वीर   सिंह
                                                                 13/04/2011 



मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

वो देखता है

दुआओं    में   मेरी   शराफत  नहीं   है ,
खुदा    जाने   कैसे ,  कबूला   उसे    है ---

 माँगा   जिसे    मैंने   , कांटे  ही  कांटे 
 अंधेरों   मे   मैं   हूँ , उजाला   उसे   है ----

नियत    मेरी   हरदम  ,खोटी   रही  है
जरुरत  मुझे   है   , निवाला  उसे    है  ---

शहर-ए-खामोशा भी,मयस्सर न होवे ,
पड़ा   खाक   में  मै , शिवाला  उसे   है ----

रुखसत   ख़ुशी   हो ,ढेर  दुश्वारियां   हों
पतझड़  हमेशा  हो  आगोशे    गुलशन

मयस्सर  न हो  एक  कतरा भी  पानी ,
देखो  अमृत  गंगा , की  धारा   उसे   है -----

बिना इल्म का,  इल्म्दां  बन  गया था ,
इल्म -ए - मुहब्बत  का  प्याला उसे है----

आवाज आई   न  मुनासिब  है  जलना ,
सबाबों   का     तेरे ,    बदला   उसे    है  --- --


                                      उदय वीर सिंह
                                       १२/०४/२०११



शनिवार, 9 अप्रैल 2011

राजा-तंत्र

 'लॉन्ग-लॉन्ग  एगो देयर  वाज  ए  किंग '
बचपन में पढ़ते रहे कहानियां 
जो सूत्रधार था ,जीवन के हर छुए - अनछुए  पहलुओं का ,
सर्व शक्तिमान इश्वर की तरह .
रंग बदलने में माहिर , गिरगिट की तरह ,
संसार चारागाह था ,जीवन दास था  उसका --- 
आज अस्तित्वहीन हैं
 राजा- रानी ,
संविधान में ---
प्रजा तंत्र  ने दिया अर्थ --
      स्वतंत्रता का ,अभिव्यक्ति का, शिक्षा का .
      धर्म का ,समता का  ,सम्मान का /
राजा  ! ,जम्हूरियत की आवाज का प्रतिनिधि होगा  -
वह -
 उन्मादी, विक्षिप्त ,अविवेकी ,अहंकारी  नहीं हो सकता ,
कदाचारी ,स्वेक्षचारी  ,व्यभिचारी  नहीं हो सकता ,
आदर्श, सम्मान  का शिखर विन्दु  होगा ,
अधिनायक  भ्रस्टाचारी  नहीं हो सकता ---
वह - 
      जनसेवक है ,धवज  -वाहक है -
      संविधान का ,कानून का ,
      मानक है बहुमत का ,
      तोड़क  नहीं हो सकता ----
                ये थे प्रजा-तंत्र के  मानस- तत्त्व .
** आज  परिस्थिति है ,स्थिति है ,
      विचलन की ,व्यतिक्रम की, विकृति की ,
      जन-सेवक के आवरण में राजा की आत्मा  वापस लौट आई है ,
       कर्मवीर   - भूखा है ,
       श्रम-साधक  नंगा  है 
       नौजवान - भ्रमित है , बेरोजगार है, 
       चूल्हे हप्तों तक नहीं जलते ,
      अब एक नहीं  अनेकों कालाहांडी हैं ,
     चूसी हुयी गुठालियों के बीज खाने को मजबूर ,
      सर्द शरीर में बेबसी  की ज्वाला है ,
      शरीर बेचने को मजबूर बाला है ,
      बिकती कोख ,नौनिहाल लाचारी में  ,
प्रजा -तंत्र के चिराग में कितना उजाला  है  !
      ** हम  विकास  के  दौर  में  हैं ,
बढ़ रहा है प्रतिशत --
        गरीबी रेखा का ,
        बेरोजगारी का  
         महंगाई का ,अपराध का ,असंतोस  का
         अवमूल्यन का ,
        स्पेसल फीचर लिए --
                  भ्रस्टाचार का  !
******
      राजनेता ,नौकरशाह पूंजीपति ,
     सुरक्षित हैं ---- बंकरों में  कानून के  ,
     जिसको अपने पक्ष में प्रभावित  व परिभाषित कर रखा है ,
     अन्ना हजारे कभी -कभी प्रकट  होते हैं
     तोड़ने का प्रयास करते हैं  ------
     दूर- संचार  , चारा ,  खेल ,खाद्यान  ,जमीं  ,कफ़न    ,
    यानि जमीं - से- असमान  से -पाताल  तक  घोटाले  ही  घोटाले --
    प्रकाशित हैं  /
  क्या फर्क पड़ता है ?
      ३७% आबादी मर-मर के जी रही हो  !
      कानून के मुताबिक  --
       प्रक्रिया चल रही है ,कार्यवाही हो रही है ,
आभाव  में सबूतों के बरी हो गए कितने ,
 मामला  विचाराधीन है ,
      आरोपी कंचन चर रहे हैं ,
      संविधान के तोड़क ,वाहक बन रहे हैं
     कौन देगा  गवाही उनके विरुद्ध ,
     अपराधी बैजयंती ले  रहे हैं  /
    पग-पग पर भ्रस्ताचार ,समाहित है
 नैतिकता पलायित है
    *
    मौन है कार्यपालिका ,विधायिका , न्याय पालिका ,
   मूक दर्शक  होना  प्रश्न -चिन्ह  छोड़ता है ,
          कैसे पनपा  राजा -तंत्र  ?
अभी जन्मा है एक  राजा ,
करोड़ों -करोड़  अजन्मे हैं , गर्भ में हैं ,
 कहीं भ्रूण  हत्या न हो जाये  ?
 लाना होगा धरातल पर ,
 नंगे शैतान ,जीवों को ,
बनाना होगा जबाब- देह
देश-द्रोहियों को ,
 देना होगा जबाब ?
 क्या बिगाड़ा था ,तैमूरो गोरी ,गजनी, अंग्रेजों के वंशज  ?
    ये मेरा प्यारा देश ,  तुम्हारा  ?
        क्यों बन गए ?  राजा  और राव  --
        लुटेरे  !
                                            उदय वीर सिंह
                                               ९/४/२०११


      

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

हँसता गुलाब -रोता गुलाब

मिली उम्र खुशियों  की,  हिस्से  में  इतनी ,
        थी हंसने की हसरत, मुस्करा भी न पाए ---
            चलते    रहे   साथ   जख्मों    के   साये ,
                दास्ताँ  हम किसी को सुना भी  न पाए ---

जिस गली से चले ,खामोशियाँ मुन्तज़िर थीं ,
         सोया    मुकद्दर    ना      आवाज    आई ,
              तलाश  में हम, अपनी मंजिल  मुक़द्दस , 
                    चलते     रहे    सिर्फ       तन्हाई  पाए -----

खोयी  ख़ुशी   अपने- अपनों   का  दामन ,
     हकीकत तब जाना हुए ख्वाबों से रुखसत  ,
        छोड़ा   चमन   ,  महफ़िलों    को      संवारा
           कितने   पैरों   ने  कुचला , बता   भी   न   पाए  -----

खुतबा -खिताबों  की झाड़ियाँ  लगी  थी,
     जब तक काम आये हम उनकी रहबरी में ,
       शौक  बनते  गए  दाग  , दामन   में  इतने ,
           छिपा   भी   न  पाए  दिखा    भी   न   पाए   ----

** तन्हा     खड़े     आज  ,  रुस्वाईयां      हैं   ,
          हैं अपनों के दिल  में  हम   कितने  पराये ,
             चले  अपना   दामन  काँटों    पर   सुखाने ,
                चीर इतनी   लगी   की सिला  भी  न   पाए   ----

    
                                                  उदय  वीर सिंह
                                                  ०५/०४/२०११


    




      

रविवार, 3 अप्रैल 2011

***सांध्य- बाला ***

धूप   ,  दीप     नैवेद्य  ,  पुष्पों    से  ,
सजते   थे  थाल ,संध्या  वंदन  की ..
सुवासित   होता  शिवाला , प्रान्गड़  ,
प्रफुल्लित   होता  ,मन  वातावरण   /
खुले   वातायन  से-
प्राण -वायु  का   प्रवेश   ,गाते  पंछी   ,
बजता  मृदंग ,जुड़े   हाँथ  श्रधालुओं    के ,
गूंजता    मधुर  स्वर ,  आरती   गायन  का  ....
भगवद  चरण  सुलभ  था 
दर्शनार्थ  /
प्रभु  चरणों  की  सेविका  ,हांथों  में  आरती- थाल
पुत्री ,  माला   बंदनीय  थी   आदरणीय  थी  ,श्रधा  थी ,
प्रभु  चरणों  के   समीप  थी   ,
वितरित    करती  प्रसाद , संध्या  का , शुभ  का  ,
मनोभाव  लिए   /
ग्रहण करते श्रधा से  ,सभी  
नतमस्तक  होते , करते आभार   ----
****
   ----अपने  शहर लौटा हूँ  अरसे   बाद ,
जाग्रत हुयी  इच्छा ,संध्या-बंदन की ,दर्शन की शिवाले की ,
चला  आया   /..
विस्मय , विद्रूप साँझ ! अविस्वसनीय  !
वीरान शिवाला ,अस्तित्वहीनता की  ओर ,
बगल में खड़ी भव्य  अट्टालिका ,
शायद  कोई   ध्यान  केंद्र  है !
जिसमें  प्रवेश  ,चयन  सर्वाधिकार  सुरक्षित  है  /
वैभव  बिखेरता   परिसर   ,इन्द्रलोक  सा  ,
ऊँची  प्राचीर  ,
झिलमिल  प्रकिर्नित  सतरंगा  मद्धिम  प्रकाश ,
भय  प्रदर्शित  करते  ,सुरक्षा  प्रहरी  ,
सुगम  नहीं   निहारना  भी  ,
छुपी  आँखें   कमरे  की ,सन्नद्ध  प्रतिपल   /
 अपराध -बोध  लिए    पूछा  प्रहरी   से  -
महानुभाव   !
मणि  शंकर   व   माला , अब  कहाँ  रहते  ?
बोला  -
स्वागत  कक्ष  का  ध्यान  करो   /
पाया  समाधान -----
      सद्दगुरु  हरिद्वार  में  हैं    /
      आते  हैं   दर्शन देने   कभी   कभार  ,
      मल्लिका   मैडम   व्यस्त  हैं ,
      माननीयों  के  ध्यान  निर्देशन  में ,
      शांति  ,सन्मार्ग  की प्राप्ति  में  /
      अगले  नौ  महीनों   तक  प्रवेश   बंद  है    /
 यहाँ   कोई   माला   नहीं   रहती    ---
 मैंने  निहारा  टंगे  तैल  चित्र    पर   ,
 वही  माला !
 जो  अर्पित  करती --  माला  , सजाये  आरती  थाल,
        बाँटती  प्रसाद ,
        प्रभु  चरणों  में /
अब   मल्लिका  है   /
शिवाला -- अट्टालिका  है   /
प्यास  बुझाने   का  प्याऊ - वियर   बार  है
स्थल,  भजन   कीर्तन  का  -  डांस  बार  है
नम्रता  ,संस्कारों   की बाला  ,
छद्मवेशी  होटल  की
संचालिका  है    /----

                            उदय वीर सिंह
                             ०३/०४/२०११
                                          








शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

***विमर्श ***

तपिश       है         फिजां        में     इतनी ,
        फिर      आँखों          में     नमीं    क्यों    है ---
           तलाशते    पथ ,   कोई    रहबर        मिले ,
            मायूस    हैं   अब    तक   , इतनी    कमी   क्यों   है ----

  सवाली       से      ही       सवाल      क्यों ?
         क्या इंतजार-ए-क़यामत मुक़र्रर  होगा ?
             आखिर          इंसाफ        की      गली      में 
                 ऐसी           बेवक्तगी              क्यों             है -----

जीवन    का      फलसफा       मुक़द्दस  ,
       ईमान        हो          इन्सान         में  ,
              इंसानियत           की       राह      में ,
                 फिर         ठगी             क्यों              है ----

आँखों          में            खौफ           है ,
      बे     -    खौफ      हैं        देने     वाले 
         जीते         मर   -   मर       के      रोज ,
                ऐसी          बुजदिली          क्यों          है  -------

    न   देखता    है   इन्सान   ,इन्सान  को
         प्यार        की         नजर         लेकर   ,
               दिल     तो       हमराह       है    उनका
                  फिर   इतनी    तंगदिली    क्यों      है   ------

तारुफ़      देते      हैं     आवाम      को   ,
       अपने     रहनुमा       होने         का
           रूबरू         होने      में     मजलूम    से
              शर्मिंदगी            क्यों                  है   -------

देना    था   खैरात    खजाने   को
      लोड्बंद           के             हांथों  ,
            हैरानगी  !    खैरात   में     भी ,
                आमदनी          क्यों            है   ------

उदय    मौत    से   क्या   मोल ,
      आनी         तो      आनी      है ,
           जिंदगी     आमानत     है     उसकी ,
                बेचारगी           क्यों              है --------

                                            उदय वीर सिंह .
                                          

     

**मानस साजो प्रीत **

ओ   मानस    के     दंश -   भाव ,
     उन्मुक्त    कभी    न   कर   मुझे ,
       भर   देंगे   शब्दों    में       सीकर ,
          बन    कर    गीत    बह    जाओगे -----

संवेदन   सून्य    दीवारों   में ,
    स्पंदित   होकर   क्या   करना ,
      स्वनाम - धन्य , मूर्धन्य  अनन्य ,
        निष्फल   प्रमेय    को    क्या  पढ़ना   /
*
निर्झर  को देख ! मन गाता जाये ,
बांधे      गांठ    क्या        पाओगे ------

भरे    पीड़ा       हृदय      बोझिल ,
    झरते   अश्क  निशहाय   गमन 
       न   तोड़    मुझे  अतिवेगन   से ,
           अतिरंजित     होता      अंतर्मन   /

*
निश्छल प्रीत सदा   मर्यादित ,
भ्रंश -  शील    सह    पाओगे  ? -----

उठती तरंग  विस्तृत  विशाल ,
    असमर्थ पयोधि  विस्मित नयन ,
       भयातुर     होते    दिग  -   दिगंत ,
           वाचक     सृष्टी      के       राजहंश ,
*
अदम्य    स्रोत , चिंतन की शाला ,
कभी   सरस , स्नेह    बन पाओगे ------

बंध   सका  समय , आगोश  नहीं ,
     न डोर , शाम   को    बांध   सकी
        रत्नाकर क्या छिपाए दिनकर को ,
          न किरण   निशा  को   साध सकी   ,

*
तुम विवेचित करते  ब्रह्मांड ,नक्षत्र ,
क्या   स्वयं   विवेचित  हो पाओगे -----

तुम होगे अधिनायक  ब्रह्माण्ड प्रखर ,
      प्रारब्ध   ,  विश्व     के    लेखाकार ,
         कर  मत  गुमान ,रचनाकार  नहीं  ,
             रचना  के  हो   केवल    एक प्रकार    /
*
सरस    प्रेम ,   आशीष      बरो ,
क्या  उसके   बिन  रह   पाओगे ----

प्रयाण   विश्व   का   अन्वेषण ,
      अमृत  गंगा  का   वाहक   बन  
          विकृत   चिंतन ,पीड़ा  उत्सर्जन ,
            घृणा  विनास  का  मत करो  वरण  ,

*
चैतन्य     भाव   का   अतिगामी ,
क्या ! अवचेतन को तज  पाओगे ----

                       उदय वीर सिंह .