मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

** मांगो न पीर **

 [निरंतर   सुख   ,सौन्दर्य ,सम्बन्ध   कर्तव्य  ,  संजोने  की  प्रत्यासा  में  जीवन  गतिमान रहता है ,फिर भी थोड़ी सी ठेस लगने पर विकल हो जाता है ,क्योकि उपर्युक्त धातुये , निरंतर स्थान बदलने वाली हैं / कोई सरल ,सौम्य ,सगा सा लगता है तो वह पीर है ,जो बिन मनुहार साथ रहती है ,सयाने कहते हैं --छोड़ इसे !    पर मैं  इसे कैसे -------- ]

मांगो  न  कोई पीर  मेरी ,
    ये  साथ  निभाने  वाली  है ,
      कुछ नियति प्रणव की ऐसी है ,
         जो हर-पल  मिलने वाली  है -----

तुम छोड़ चली क्यों री पगली ,
    देने  को  चैन,  बैराग्य    लिया ,
     अविरल   नैन   कहाँ  रुकते  हैं ,
         तेरे      उर ,    विश्राम     लिया ----

पूंजी भी मेरी श्नेह-लता ,
         अतिरंजित होने वाली है  ----

बरसे  थे  सावन  झूठा  था ,
     मद - बसंत  से  क्या   लेना  ,
       दो झरनों की  आहत बूंदों से ,
          जीवन -  पथ  का   तर   होना  --

तज अवलंब ,राहें  मेरी  क्या ,
     उज्जवल   होने   वाली     है ?--

सुख , संयोग , दुर्योग    बना ,
    अपनों   में  पराया  लगता  हूँ  ,
       होठों  पर  हंसी    बिखरती   है ,
        अंतर ,  अनल   में     जलता   हूँ --

न  छोड़   मुझे   आबद्ध   करो ,
     आस     बिखरने      वाली    है --

वैभव - सानिध्य  सपोला   है   ,
    स्वयं   से   दूर   हुआ   जाता --
      न   शाम   मेरी , ना  प्रात   मेरा ,
         सूर्य      दोपहरी    छुप      जाता ---

यौवन की दे ना प्यास मुझे ,
    जो  हाला   में   ढलने   वाली  है ---

सूखी  सरिता ,  मरुधर    जैसी ,
   भग्नावशेष   धूसरित  दीखते  हैं ,
    अस्तित्वहीन    शाहिल , कश्ती  ,
       इतिहास     पुरातन    लिखते    हैं ---

जीव   तजे , मौजें   रुखसत ,
      उदय  पीर ना   जाने  वाली   है ---

                                 उदय वीर सिंह
                                   २६/०४/२०११

  

9 टिप्‍पणियां:

Satish Saxena ने कहा…

आखिरी सांस से पहले हम
अपनी तकलीफें भूल चुके
रिश्ते नातों और प्यारों का
अहसान, अभी भी भारी है

रश्मि प्रभा... ने कहा…

सुख , संयोग , दुर्योग बना ,
अपनों में पराया लगता हूँ ,
होठों पर हंसी बिखरती है ,
अंतर , अनल में जलता हूँ --
prashansniy rachna

vandana gupta ने कहा…

बेह्द उम्दा रचना।

Rakesh Kumar ने कहा…

आपकी पीर अद्भुत और निराली है.

'तुम छोड़ चली क्यों री पगली ,
देने को चैन, बैराग्य लिया ,
अविरल नैन कहाँ रुकते हैं ,
तेरे उर , विश्राम लिया'
भाव और शब्द चयन बहुत मार्मिक व सटीक हैं.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत आभार.

जयकृष्ण राय तुषार ने कहा…

बिलकुल सूफियाना और सुंदर गीत भाई उदय जी बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं |सत श्री अकाल

Smart Indian ने कहा…

दिल छू लेने वाले भाव!

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सुख , संयोग , दुर्योग बना ,
अपनों में पराया लगता हूँ ,
होठों पर हंसी बिखरती है ,
अंतर , अनल में जलता हूँ --

न छोड़ मुझे आबद्ध करो ,
आस बिखरने वाली है --


बहुत सुन्दर रचना ..यह पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगीं

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

रिश्ते नातों और प्यारों का
अहसान, अभी भी भारी है ...

वर्तमान का यथार्थ है आपकी कविता में ....
भावपूर्ण कविता के लिए हार्दिक बधाई।

ਸਫ਼ਰ ਸਾਂਝ ने कहा…

दिल छू लेने वाली रचना
बहुत अच्छी पंक्तियाँ
.वैभव - सानिध्य सपोला है ,
स्वयं से दूर हुआ जाता --
न शाम मेरी , ना प्रात मेरा ,
सूर्य दोपहरी छुप जाता ---
..