रविवार, 12 दिसंबर 2010

पिंजरे का पंछी

खुनी पंजों ,विषधरों ,
बुरी नज़रों  से हर-पल सन्नद्ध ,
मिटाने को अपनी हस्ती ,
सँवारने को जीवन ,
कितनी ऊँचाईयाँ प्रदान  की थीं
 मेरे माता  -पिता ने  / सुरक्षा  की   दृष्टी   से     ,
 विशाल रूखे ,बृक्ष -शिखर पर   साजा  था
एक  घरौंदा  /
घने  जंगलों  के   बिच  /
फुदकने  का  प्रयास  करते , आकर   बाहर 
माता - पिता  के   साथ    /
निहारते  दूर   तक  फैले  क्षितिज  ,प्रकृति  का  सुन्दर  स्वरुप  ,
असंख्य  जीव ,उनके  स्वर   ,
कितना  अद्भुत  !
नव -,जीवन  ,अनुभूतियाँ  -,नवल   ,
स्व्क्षछंद  , विह्वल  , प्रकृति   के  संग  समायोजित   ,
 नवल -गीत  के   पाठक    ,
हम   /
****
 दबाये  चोंच  में  दाने  ,
उतरते    नील   -अम्बर  से
चुगाते   मुझे , देते  असीम  प्यार   ,छुपाते  पंख   में   ,
संग  निर्देश  भी  ----
बेटे  ! नहीं  जाना  दूर  कोटर  से   ,
अभी  समझ  नहीं  है   ,
न  दुनिया  की ,  न  उड़ान   की  /
प्रतिक्षा  करो  ,समय  की     !
अगला  प्रभात  आया  ,लेकर  बज्रपात  ,
गये  उड़ान  पर  ,
 मेरे   पीर ,  क्षुधा  -शांति  का  करने  प्रयत्न   ,
***
आये  शिकारी   ! बिछाये  जाल / तलाशते   कोटर - ,कोटर  ,
मैं  शिकार   बन  गया    /
ले   जया  गया  बाज़ार   ,
 वहीँ  देखा   अपने  माँ  -बाप  को  दुसरे  जाल   में ,
आर्तनाद  करते  हुए ,
दी आवाज उन्हें  !आने को आतुर  ,पर फासले बहुत ,
मुक्त    होने  का  विफल  प्रयत्न / .
मेरे  ख़रीददार  मिल  गये    ,
 छुटे प्रियजन  ,   जंगल ,का साथ ,
अब    पिंजरे  में   बंद  ,लाचार  ,
रटता   हूँ    ! जिसने  जो   रटाया   /
मेरा  करुण   क्रंदन  ,पुकार ,'
उन्हें  आनंद  देते  हैं   ,
संगीतमय  लगाती  है
 मेरी     याचना   !
मैं  पिजरे   का   पंछी  !
कहूँ    किससे    ?
कौन  खोले   ,मुक्ति    के  द्वार   ?
क्या   मेरा  गाँधी  नहीं  लिया  अवतार    अभी   ?

                                        udaya veer singh
                                           11/12/2010


कोई टिप्पणी नहीं: