रविवार, 7 नवंबर 2010

सुलझन

अलसाई    मेरी     साँझ   थी  , सवेर हो    गयी   ,
कितनी उलझी मन की गांठ  थी .निवेर हो गयी --------

पंछी भरे  उड़ान  तो,हर  मंज़र  को देखता  ,
जब   डाली  नज़र  मजार  पर  ,देर हो गयी  ---------

हँसता रहा गुलाब ,  सुर्ख- रंगत के नाज़ में ,
सींचा जो  अपना खून दे ,ओ  चेर हो  गयी  .----------

करना था जिन्हें हलाल  ,दे जज्बा -जूनून  को
बे-दर्द  कट गए ,जुबां शमशीर  हो गयी  ----------

बिछना था जिनको राह में ,कांटे बिछा दिए  ,
चुभते रहे जो उम्र भर  , बे- पीर हो    गयी -----------

सिमरन दुआ की आस में ,हर चौखट कुबूल था ,
अब ठोकर में रब की दात उदय ,कुबेर हो गयी .--------

                             उदय वीर  सिंह .
                              ७/११/२०१०

                    

1 टिप्पणी:

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

बिछना था जिनको राह में ,कांटे बिछा दिए ,
चुभते रहे जो उम्र भर , बे- पीर हो गयी -----

बहुत खूबसूरत गज़ल है ..


कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...

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