अलसाई मेरी साँझ थी , सवेर हो गयी ,
कितनी उलझी मन की गांठ थी .निवेर हो गयी --------
पंछी भरे उड़ान तो,हर मंज़र को देखता ,
जब डाली नज़र मजार पर ,देर हो गयी ---------
हँसता रहा गुलाब , सुर्ख- रंगत के नाज़ में ,
सींचा जो अपना खून दे ,ओ चेर हो गयी .----------
करना था जिन्हें हलाल ,दे जज्बा -जूनून को
बे-दर्द कट गए ,जुबां शमशीर हो गयी ----------
बिछना था जिनको राह में ,कांटे बिछा दिए ,
चुभते रहे जो उम्र भर , बे- पीर हो गयी -----------
सिमरन दुआ की आस में ,हर चौखट कुबूल था ,
अब ठोकर में रब की दात उदय ,कुबेर हो गयी .--------
उदय वीर सिंह .
७/११/२०१०
1 टिप्पणी:
बिछना था जिनको राह में ,कांटे बिछा दिए ,
चुभते रहे जो उम्र भर , बे- पीर हो गयी -----
बहुत खूबसूरत गज़ल है ..
कृपया वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ...टिप्पणीकर्ता को सरलता होगी ...
वर्ड वेरिफिकेशन हटाने के लिए
डैशबोर्ड > सेटिंग्स > कमेंट्स > वर्ड वेरिफिकेशन को नो करें ..सेव करें ..बस हो गया .
एक टिप्पणी भेजें